--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शुक्रवार, नवंबर 07, 2008
ईर्ष्या और दोषदृष्टि
ईर्ष्या, असहानुभूति और दोषदृष्टि का
एक प्रधान कारण ही होता है--
एक को जो अच्छा लगता है,
वह दूसरे को अच्छा लगने के बजाय
अहं को आहत, उद्विग्न, अवसन्न कर देता है
और यह उभयतः ;-
उसके ही फलस्वरूप
अपवाद और ईर्ष्या से
अप्रतिष्ठा आकर
दोनों का ही अपलाप लाना चाहती है;
तुम किंतु
दूसरे को जो अच्छा लगे उसमें आनंदित होओ ;--
सहानुभूति दो--
यदि तुम्हारी क्षति भी करे,
उसकी अवस्था, प्रयोजन एवं बोध के प्रति
नजर रखकर--
वहाँ तुम्हारी यदि वैसी अवस्था होती
तो तुम भी वैसा करती,
बोध कर
उसकी निन्दा या अख्याति न करो--
और, यह तुम
चरित्रगत करने की चेष्ठा करो;--
देखोगी--
प्रतिष्ठा पाओगी,
स्वस्ति तुम्हारी अभ्यर्थना करेगी। 28
रविवार, नवंबर 02, 2008
गुप्त पुरुषाकांक्षा
जभी देखोगी
पुरुष-संश्रव
तुम्हें अच्छा लग रहा है--
अज्ञात भाव से कैसे,
पुरुष के बीच जाकर,
ग़प-शप में प्रवृत हो रही हो--
समझोगी--
पुरुषाकांक्षा
ज्ञात भाव से हो या अज्ञात भाव से
तुम्हारे अन्दर सर उठा रही है;--
यद्यपि
स्त्री-पुरुष दोनों का ही प्रकृतिगत एक झोंक होता है
एक दूसरे के संश्रव में आना--
फिर भी दूर रहोगी,
अपने को सम्हालो,--
अन्यथा
अमर्यादा
तुम्हें कलंकित करने में
बाज नहीं आएगी। 27
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
साज-सज्जा का प्रयोजन और बहुतायत
नारी की साज-सज्जा,
वेश-भूषा,
चलन-चरित्र
ऐसा होना चाहिए--
जो पुरुष के दिल में
एक उन्नत, पवित्र, सद् भाव पैदा करे;
और यह सुप्रजनन एवं
मनुष्य को श्रद्धोदीप्त करने का
एक उत्तम उपकरण है; --
इसकी बहुलता
बाहुल्य को ही आमंत्रित करेगी--
सावधान होओ। 26
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
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