---: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शनिवार, अक्तूबर 24, 2009
नम्यता में विपर्यय
स्त्री-चरित्र सहज नम्य होता है--
इसलिये
बिना सोचे-समझे पुरुष-चर्या में
सहज में ही
आनत और रंजित हो जाती है ;
यह स्त्री-जाति का एक
लक्षणीय लक्षण है ; --
इसलिये,
यदि उपयुक्त वर ही पाना चाहती हो
पुरुष से
इतना दूर रहो
जिससे नजर में रहे
पर मिश्रण न हो ;--
तुम बोध कर सकोगी
और उपयुक्त मनोनयन होगा ;--
और, उसे बिना सोचे समझे परिचर्या के
फलस्वरूप
अधः पतन का
बहुधा गुप्त आक्रमण
तुम्हें विध्वस्त और विपन्न करके--
पातित्य के तमसाच्छन्न गह्वर में
पहुंचा दे सकता है,
सजग रहो--
सावधान हो। 64
शनिवार, मई 02, 2009
हल्कापन
अनेक नारी
संसर्गदोष से हो--
या
अनियंत्रित होने के फलस्वरूप हो --
न जाने कैसा एक हल्का चरित्र को पकड़े रखती है--
जैसे कोई बात ही हजम नहीं कर सकती;
वाक्य मानो मस्तिष्क में जाते ही
जाने कैसा एक अस्वच्छंद यंत्रणा पैदा कर देता है--
दूसरे के निकट उड़ेले बिना
कोई दूसरा रास्ता ही नहीं रहता,--
यह बड़ा बुरा अभ्यास है
इस अभ्यास ने
नारी-जगत में जितना अकल्याण किया है
यह दूसरे की तुलना में अत्यधिक है;-
यदि कोई तुम पर विश्वास कर
कुछ कह चुका है
और उसे प्रकाश में लाने पर
उसका या और किसी का अकल्याण होता है--
यदि तुम्हें प्रकाश में लाने के लिये
निषेध नहीं भी किया हो,
तो भी उसे किसी भी तरह प्रकाश में न लाओ;
और वह बात यदि ऐसी हो
जिसे प्रकाश किये बिना उसका या दूसरे का
अकल्याण अति निश्चय है,--
यदि उसे तुम कल्याण में
नियंत्रित नहीं कर सको--
तो ऐसे मनुष्य से कहोगी
जो उपयुक्त तरीके से
नियंत्रित कर सकें
तुम्हें ऐसा प्रतीत हो
एवं जिसने कहा है
उसका किसी तरह से अमंगल न हो;
इसमें भला ही होगा--
बहुत असुविधाओं के हाथों से
निष्कृति पाओगी,--
हिसाब से चलो। 63
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति
गुरुवार, अप्रैल 30, 2009
जननीत्व में जाति
नारी से जन्म लेता है
और वृद्धि पाता है--
इसीलिए नारी है
जननी ! --
और, इसप्रकार ही
वह
जाति की भी जननी है,
उसकी शुद्धता पर ही
जाति की शुद्धता निर्भर करती है ;--
स्खलित नारी-चरित्र से
व्यर्थ जाति ही
जन्म-लाभ करती है--
समझ लो--
नारी की शुद्धता की
आवश्यकता क्या है ? 62
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति
मंगलवार, अप्रैल 21, 2009
अधीन बोध में प्रेम
प्रकृत प्रेम या प्यार है
चिरवहनशील, चिरसहनशील, --
इसलिए अपने प्रेमास्पद को
निरवच्छिन्न भाव से
सहन करता है-- वहन करता है,--
विरक्त नहीं होता,
अवश नहीं होता,
दुर्बल नहीं होता,--
वह अपने प्रेमास्पद को इस प्रकार
सर्वतोभाव से
सहन करता है और वहन करता है,
और इस प्रकार सहन तथा वहन करने में ही
उसे आनंद, उद्यम और उत्फुल्लता होता है
इसीलिए सोच नहीं सकती है कि
वह अपने प्रेमास्पद के
अधीन में है,
और, जहाँ ऐसा अधीन-बोध है,
वहाँ काम की घृणामय दुर्गन्ध है
जो वासना या इच्छा दबी थी--
उसके अभाव या पूरण में
विद्वेषमूर्ती से बिच्छुरित हो रही है
ठीक जानो। 61
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
विवाह-परिहार
आदर्शानुप्राणता
यदि तुम्हें
उद्याम कर देती है,
यदि तुम अपने हृदय में
उनके अलावे
और किसी को स्थान न दे सको,--
और,
यदि अपने
पारिपार्श्विक और जगत में
उनकी प्रतिष्ठा करने की उन्मादना
अटूट भाव से पकड़े रहे,--
प्रतीत होता है--
विवाह किए बिना भी
जीवन को पुण्य और पवित्रता से अतिवाहित कर
सभी को उज्ज्वल करके --
अपने को उज्ज्वलतर बना सकोगी;--
अपने-आपको समझकर देखो;
यदि कलुषिता देख पाती हो,
तो विवाह के लिए व्रती होना ही
तुम्हारे लिए श्रेय है। 60
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
सोमवार, अप्रैल 20, 2009
छद्मवेशी मातृभाव
अनेक दुर्बलचित्त, नीच चिंतापरायण पुरुष--
विशेषतः ऐसे युवकगण --
अपनी कामलोलुपता को
भ्रातृत्व या संतानत्व का
मुखौटा पहन कर --
माँ, मौसी, भाई, बहन इत्यादि
संबोधन करते हुए
नारियों के निकट पहुच कर
हावभाव-आदर-प्यार से
उन्हें वश में लाकर, --
स्तनपान, चुम्बन, लिपट कर धरने इत्यादि
के माध्यम से --
अपनी नीच काम-प्रवृति को
चरितार्थ कर लेते हैं--
जो उनकी मौसी है, बहन या गर्भधारिणी हैं
उनके साथ वैसा बिल्कुल नहीं करते;
सावधान होओ
ऐसी माँ, मौसी, पुत्र
भाई बननेवाले इत्यादि सम्बन्ध से,--
उसमें नारियां
कामभाव में उद्दीप्त होकर
ऐसे पुरुष के प्रति ढल पड़ती हैं--
फलस्वरूप आत्मबिक्रय करने को बाध्य होती है,
गोपनता ही
इनलोगों का उत्तम क्षेत्र है;--
इसीलिए
वे प्रायः
लोकजन से दूर हटकर रहना चाहते हैं,--
लोगों के निकट यह प्रमाणित करते हैं कि
वे खूब साधु और आदर्श चरित्र के हैं;--
पारिपार्श्विक की आंखों से बचने के लिए
दोनों एक दूसरे का
प्रचार करते हैं,--
किंतु वस्तुतः
उनके चरित्र में
वैसी कुछ अच्छाई देखी नहीं जाती;
जो भी हो
पहले से ही सावधान हो जाओ;--
और, यदि भूलवशतः कुछ दूर
अग्रसर हुई हो--
तो ऐसे लक्षण के देखते ही
दूर हट जाओ;
मन को संयत करो,
पददलित कर उपयुक्त शिक्षा देकर
उसे विदा करो--
समझ लो-- भेड़ियाँ भी
उनसे अधिक चरित्रवान हैं। 59
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
रूग्नावस्था
तुम जब रोगग्रस्त रहती हो
जनसंसर्ग से जितना दूर सम्भव हो
उतना दूर रहो;
सम्भव हो तो अपने आपको उस प्रकार
उपयुक्त तरीके से
विच्छिन्न कर रखो--
जिससे दूसरों में तुम्हारा रोग,
किसी प्रकार बिल्कुल संक्रामित
न हो;--
सोने, बैठने, वार्तालाप इत्यादि में भी
पैनी दृष्टि रखो-- उस संक्रमण की दिशा में ;
और तुम्हारी सेवा-शुश्रूषा में जो लगे हुए हैं,
सम्भव हो तो उन्हें भी समझा दो
और नजर रखो--
वे पाक-साफ हुए बिना
जनसंसर्ग में न जाएँ;
देखोगी-तुम्हारी रोगग्रस्त अवस्था
कटने पर
पुनः नाना प्रकार से आक्रांत होने के
भय और संभावना
कम ही रहेंगे। 58
-- : श्री श्री ठाकुर, नारीनीति
परिश्रम
जिस प्रकार आहार करने पर
कोष्टशुद्धि का प्रयोजन है,--
उसी प्रकार ही
पुष्टि पाने के लिए
विधान (system) के त्यक्त-पदार्थ का निःसरण
अति आवश्यक है; --
और,
उसी उद्देश्य से
उपयुक्त परिश्रम
कम से कम जब तक पसीना न निकले--
स्वास्थ्य के हित में
अमूल्य और अमृततुल्य है। 57
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शनिवार, अप्रैल 18, 2009
एक पात्र में आहार
अनेक मिलकर एक पात्र में आहार न करो,
वरण
एक साथ आहार करो--
यदि आवश्यक समझो;
एक पात्र में आहार करने से
अनेक रोग संक्रामित होते हैं,--
ऐसा बहुधा देखा गया है;
इसके फलस्वरूप --
तुम रोगी होकर
सारे परिवार को भी रोगी बना दे सकती हो ;
जो स्वास्थ्य, आनंद और जीवन को
अवनत करता है, वही है पाप;--
इसीलिए
सुस्थ गुरुजन के सिवाय किसी के भी
जूठे भोजन को
हिन्दुओं ने-- हिंदू ही क्यों, वैज्ञानिकों ने भी--
विशेष रूप से निंदा की है। 56
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
अशुद्ध पारिपार्श्विक
स्वास्थ्य जिस प्रकार
मन को नियंत्रित कर सकता है,
मन भी उसी प्रकार
स्वास्थ्य को वश में ला सकता है;--
तुम्हारा मन
जितना
शुद्ध, सुस्थ और सबल रहेगा
तुम्हारा स्वास्थ्य भी बहुत अंशों में
उसका अनुसरण करेगा; --
और,
ऐसा स्वास्थ्य लाभ करने हेतु
नजर रखनी होगी
अपने पारिपार्श्विक की परिशुद्धता के प्रति;
अशुद्ध पारिपार्श्विक
स्वास्थ्य और मन को
जितना बिगाड़ सकता है,
ऐसी दूसरी कम ही चीज है--
नजर रखो। 55
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
आहार में शरीर और मन
जिस प्रकार
चुटकी काटने से,
घृणित वस्तु देखने से,
नापसंद व्यवहार पाने से
दिल में विक्षेप उपस्थित होता है--
उसी प्रकार
आहार्य वस्तु
शरीर पर
जिस प्रकार क्रिया करती है-
मन की अवस्था भी
वैसी हो जाती है;-
याद रखो--
आहार्य वस्तु से
मन का सम्बन्ध
इतना ही घनिष्ठ है--
हिसाब करके चलो। 54
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009
आहार
तुम्हारा आहार
ऐसा ही होना चाहिए--
जिसे
हजम कर--
सहज में ही
तुम्हारी क्षुधा
जगा दे सकता हो;--
और,
ऐसे हजम के फलस्वरूप
तुममें
उपयुक्त पुष्टि
ला दे। 53
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
क्षुधा में उद्यम
यदि उद्यमी
और
निरलस
बनने की इच्छा हो--
क्षुधा का विसर्जन न करो;--
क्षुधा ही
भुक्त आहार्य को
पुष्टि के उपयोगी बनाती है, --
और
यह पुष्टि ही है
शक्ति का इंधन। 52
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
बुधवार, अप्रैल 15, 2009
बिना किए दावा
किसी के लिये बिना कुछ किए
(जिससे मनुष्य स्वस्ति, शान्ति और आनंद पाता है इस तरह)
अपना समझकर
दावा न करो--
पाओगी नहीं--
बल्कि
लांछित होओगी । 51
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
बन्ध्या-भोग
तुम्हारी
साज-सज्जा, सुख इत्यादि
यदि किसी की
तृप्ति, तुष्टि से
उद् भव नहीं हुआ; --
और वह
यदि अन्य सभी को
तृप्त, पुष्ट या सुखी न बना दे,--
लाखों भोग तुम्हें
सुख-भोग में सुखी नहीं बना सकेंगे--
यह ठीक जान लो;
ऐसा बन्ध्या भोग
तुम्हें
और भी
ईर्ष्या, आक्रोश, अतृप्ति और
दुःख के देश में
ले जायेगा। 50
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
भोगान्धता
अपने भाव या ढंग को
जितना ही भोगमुखर बनाये रखोगी,
प्रकृत भोग
तुमसे दूर रहेगा ;--
कारण,
भोगान्ध मन
किसी भी तरह नहीं समझ सकता है--
किसे लेकर
क्या देकर
किस प्रकार
भोगलिप्सा को
तृप्त करना चाहिये ;--
तुम्हारे प्रणय की धारा
यदि इस रूप में हो--
तुम
चिरकाल
अतृप्त रहोगी--
संदेह नहीं। 49
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
दोष का अनादर-दोषी का नहीं
दोष, अन्याय और अपवित्रता का
अनादर करो,--
किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि
जो ऐसा करते हैं
उनका करो ;--
वे जिससे
आदर, सहानुभूति और सेवा से--
तुम्हारे अन्दर स्थान पाकर,
तुमसे मुग्ध होकर,
तुम्हारी बातचीत से
उन्हें अच्छी तरह पहचान कर
इस प्रकार उन्हें छोड़ दे
कि वे जिससे उनके सीमाने में भी
झांकी नहीं मार सकें, --
धन्या होओगी और धन्य करोगी--
उनका आशीर्वाद
तुम पर उपच पड़ेगा--
देखोगी। 48
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
सोमवार, अप्रैल 13, 2009
शुचि और परिच्छ्न्नता
सर्वदा
शुचि और परिच्छन्न रहो,
तुम्हारा शरीर और चतुर्दिक मानो
सुसज्जित,
परिष्कार-परिच्छन्न रहे,-
मैला, दुर्गन्ध या बिखरे न रहें, --
सज्जित कर रखो--
देखते ही मानो
सुंदर और स्वस्ति का
अनुभव हो;--
इसका अर्थ यह नहीं कि
पाक-साफ़ रहने की सनक तुम पर सवार हो; --
देखोगी
स्वास्थ्य और तृप्ति
तुम्हें अभिनंदित करेंगे ;-
अशुचि और अपरिच्छन्नता --
पातित्यों में
ये भी कम नहीं हैं। 47
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शुक्रवार, अप्रैल 10, 2009
शिल्पव्रत
मुझे प्रतीत होता है,
व्रतों में जिस व्रत का अनुष्ठान करना
प्रत्येक नारी का अवश्य कर्त्तव्य है, --
वह है शिल्पव्रत ;
ऐसे कुछ का अभ्यास करना चाहिये --
जिसे काम में लगाकर
कम से कम तुम अपना--
असमर्थ होने पर
अपने स्वामी, संतान-संतति इत्यादि के लिए
अन्न, वस्त्र एवं आवश्यक जरुरतों का
संस्थान कर सको ;--
तुम्हारी अवस्था यदि अभाव में नहीं भी रहे,
तो भी
अपने उपार्जन से
संसार को
उपहार स्वरूप
कुछ देना ही उचित है ; --
इससे
आत्मप्रसाद लाभ करोगी,
दूसरे के सर का बोझ
बने रहने का भय नहीं रहेगा ;
अवज्ञा की पात्री नहीं बनोगी,--
आदर और सम्मान अटूट रहेगा ;--
'शिल्प' का अर्थ किंतु श्रमशिल्प भी है--
और, इसके बिना
लक्ष्मी का व्रत सम्भव है या नहीं,
यह नहीं जानता ! 46
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
व्रत और नियम
व्रत और नियम को
त्यागो नहीं--
बल्कि
क्यों करता है,
किस प्रकार करता है,
इसे करने पर क्या हो सकता है,--
अच्छी तरह समझ कर,
जो तुम्हारे धर्म को
अर्थात् जीवन, यश और वृद्धि को
उन्नत करता है--
वही करो,
अनुष्ठान करो--
उपभोग करोगी ही। 45
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
वाक्-नियंत्रण
अंततः वाक् का
यदि इस प्रकार
व्यवहार करने का अभ्यास
चरित्रगत कर सको--
जिससे
मनुष्य के पास दुःख, अमंगल, असंतोष
आ न पहुंचे--
तो देखोगी--
कितनी तृप्ति है,
कितना संतोष है,
कितनी सहानुभूति लाभ की
अधिकारिणी हुई हो
उसकी इयत्ता नहीं;--
आग्रह सहित
इच्छा को आमंत्रित करो,--
अभ्यास में लग जाओ--
समर्थ नहीं होगी ?--
निश्चय समर्थ होओगी। 44
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
बुधवार, अप्रैल 08, 2009
स्वजाति-विद्वेष
साधारणतः नारियों में देखा जाता है
स्वजाति के प्रति असहानुभूति और उपेक्षा,--
और
इसका अनुसरण करती है
दोषदृष्टि, ईर्ष्याप्रवणता, आक्रोश और
परश्रीकातरता ;--
और उसके फलस्वरूप--
दूसरे की अप्रतिष्ठा करने में
अपनी प्रतिष्ठा को भी
नष्ट कर डालती है;--
तुम कभी भी
ऐसा मत बनो,--
अन्याय का अनादर करके भी
बोध और अवस्था की ओर देखती हुई--
सहानुभूति और साहाय्य प्रवण हो, --
ख्याति
तुम्हारी परिचर्या करेगी-
संदेह नहीं। 43
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
मंगलवार, मार्च 10, 2009
प्रेम में आविष्कार
एकमात्र प्रेम ही--
अपने प्रिय के जीवन, यश, प्रीति और वृद्धि को
उन्नति के पथ पर ले चलने के लिए
क्या करना होगा,
अविष्कार कर ;
उसे वास्तव में
परिणत कर सकता है; --
तुम
जिसे प्रिय
समझ रही हो--
तुम्हारे मन और मस्तिस्क की अवस्था
उस ढंग की हुई है या नहीं--
देख कर समझ सकोगी
तुम्हारे प्रेम में
खोटापन है या नहीं। 42
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
सदस्यता लें
संदेश (Atom)