बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

Varan Mein Vichaar

वरण में विचार 

वरण करते समय यह देखो--
स्वामी का आदर्श क्या है या कैसा है,
उनकी अराधना में
चेष्टा और कर्म की अग्नि में
अपने को आहुति देकर सार्थक होने का
प्रलोभन
तुम्हें प्रलुब्ध करता है या नहीं ;
और, तुम जिसे वरण करना चाहती हो,
वह उनके प्रति कैसा है और कहाँ तक है--
कारण, तुम उनकी सहधर्मिणी बनने जा रही हो
इसमें तुम यदि उदबुद्ध हो--
और, जाति, वर्ण, वंश, विद्या में --
यदि -- तुम्हारे जो वरणीय हैं--
वे सर्वतोभाव से तुमसे श्रेष्ठ हों--
एवं अपने पूर्वजों को अर्ध्यनीय समझकर
विवेचना करती हो--
तभी--उनको वरण करने पर
विपत्ति के हाथों से
बच सकोगी--
यह ठीक जानो.   |73|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, नारीनीति 

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

Vivaah Mein Udvarddhan Aur Suprajanan

विवाह में उद्वर्द्धन और सुप्रजनन

विवाह
मनुष्य की
दो प्रधान कामनाओं की ही
परिपूर्ति करता है;--
इनमें एक है उद्वर्द्धन,

दूसरा है सुप्रजनन ;
अनुपयुक्त विवाह

इनदोनों को ही
खिन्न कर देता है ;--
सावधान !
विवाह को खिलौना मत समझो--
जिसमें
तुम्हारा जीवन
और जनन
जडित है.  |72|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, नारीनीति

मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010

Varan Mein - Vanshaanukramiktaa

वरण में--वंशानुक्रमिकता

पुरुष का आदर्शानुराग
श्रद्धा और भक्ति से उत्पन्न होता है; --
जिनकी प्रेरणा पाकर,
कर्मानुष्ठान कर,
सेवा करके--
जिस बोध और ज्ञान की उत्पत्ति होती है,
वह संतान की मूलगत धातु में संक्रामित होकर
जो स्वभाव बनता है,
वही उसका आदिम संस्कार है !
उसका यह संस्कार ही
अपने पारिपार्श्विक से
वांछित उपकरण संग्रह कर
विवर्द्धित होते हुए
मनुष्य बनकर उठ खड़ा होता है; --
परन्तु, मनुष्य की उन्नति का मूल उपादान ही है
पुरुष-परंपरागत आदर्शानुराग से उदबुद्ध
यह वंशानुक्रमिकता (cultural heredity )
यह जहाँ श्रेष्ठ है--
वरण के मामले में वही अग्रगण्य और आदरणीय है
स्मरण रखो--
इस वरण और वंश की अवज्ञा करने से
सवंश जो तुम मरणयात्री होगी
उस विषय में और भूल कहाँ ?   |71|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, नारी नीति

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

Kalpana-Prahelika mein Swami Varan

कल्पना-प्रहेलिका में स्वामी-वरण 

जो लड़कियाँ स्वामी को
अपनी कल्पना के अनुसार पाना चाहती हैं,--
वास्तव में उदबुद्ध होकर
स्वामी को वरण नहीं करती हैं,--
वे
स्वामी के साथ
जितना ही परिचित होती हैं,
उतना ही निराश होती हैं;
अफशोस, दोषदृष्टि, जीवन में धिक्कार इत्यादि
उनके पार्श्वनुचर बनते हैं,--
अवसाद में अवसान होती हैं--
और, उस हतभाग्य पुरुष का भी
शेष निःश्वास
उसी प्रकार
मृत्यु में विलीन हो जाता है ;
भूल मत करो,
ऐसी मृत्यु को
आमंत्रित न करो.   |70|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, नारी नीति