मंगलवार, नवंबर 29, 2011

Swaami Ke Prem Ka Parimaap

स्वामी के प्रेम का परिमाप 

स्वामी किस तरह
           कितना
                     तुम्हें प्रेम करते हैं,
उसका हिसाब-किताब
           मत रखो,--
दूसरे के प्रेम से
           उनके प्रेम की तुलना करके
                     क्षुब्ध मत होओ, --
           जो पाओ,
                     उसमें उत्फुल्ल हो जाओ;
किन्तु देते समय
           उनकी धातु और अवस्था समझकर
                     ऐसा दो,
जिसे उन्होंने कहीं भी पाया नहीं हो, --
और, पाकर कहीं से भी पाने की
            आशा नहीं करें, --
देखोगी--
            तृप्ति और आनंद
तुम दोनों के ही --
            ख़रीदे गुलाम बने रहेंगे.   |92|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

सोमवार, नवंबर 28, 2011

Swaami Ki Dhaatu Se Parichay

स्वामी की धातु से परिचय


तुम्हारे स्वामी तुम्हें
           पसन्द करें तो भी
उसकी धातु, अवस्था और प्रयोजन से
                यदि परिचित न रहो,--
           यदि बोध न करो,
वे तुमसे
           आलाप-आलोचना, युक्ति और
               मीमांसा से निराश होंगे ; --
तुम अपनी वार्त्ता में
           वैसी प्रेरणा नहीं पाओगी,--
फलस्वरूप, उनके मन को
           स्निग्ध शांत, तृप्त और
                उदबुद्ध करने में
                    समर्थ नहीं होओगी,
दोनों ही क्रमागत
         क्षुन्न होते रहोगे ;--
इसलिये, पुनः कहता हूँ --
          तुम हर तरह से
                      उन्हें जान लो.   |91|


--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

सोमवार, नवंबर 21, 2011

Swaami-Vikshep

स्वामी-विक्षेप 


यदि स्त्री ही बनी हो--
          स्वामी से विक्षिप्त मत हो---
अपने सर्वनाश की अग्नि में
          उन्हें भस्मसात मत करो.    |90|


--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

Swaami Ke Prati Jaagrat Prem

स्वामी के प्रति जाग्रत प्रेम 

लक्ष्य रखो--
         स्वामी के प्रति तुम्हारा प्रेम
                 जाग्रत और प्रेरणापुष्ट रहे,--
वे जिससे
          तुम्हारे संश्रव में आकर--
आदर्श और पारिपार्श्विक की सेवा में
           उद्दाम होकर --
                    वास्तव में उच्छल हो जायें, --
उनमें संकोच पैदा न करना,
           संकीर्ण नहीं बनाना,
                     आत्मपरायणता में निबद्ध नहीं करना--
स्वस्ति, यश और शान्ति
           तुम दोनों की ही
                     बन्दना करेंगे.   |89|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूल चन्द्र, नारी नीति 

Swaami Mein Devbhaav

स्वामी में देवभाव 

स्वामी को
          देवता समझो --
और,
          'देवता' का अर्थ वही है,
                 जो तुम्हारी आँखों के सामने
                       उज्ज्वल रूप में
                             मन को उज्ज्वल और उत्फुल्ल कर रहे हैं ;
देखो--
           तुम्हारी सेवा, आचरण
                   या भ्रांत प्रेरणा से
                           यह मलिन न हो उठे, --
तुम
         उनकी ज्योति और आनंद का
                इंधन बनो--
किन्तु
          इतना या ऐसा न बनो,
                जिससे
                       दबकर
                               वह बुझ जाये .   |88|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

शनिवार, नवंबर 19, 2011

Jeevandharm Mein Isht

जीवनधर्म में इष्ट 

इष्ट या आदर्श या गुरु
          वही हैं या वे ही हैं,
जिन्हें लक्ष्य बनाकर
          अनुसरण कर,
मनुष्य जीवन, यश और वृद्धि में
           क्रमोन्नति लाभ कर सकता है,--
और,
आसक्ति या भक्ति उनमें निबद्ध रहने के फलस्वरूप --
           पारिपर्श्विक और जगत
           उसमें कोई विक्षेप सृष्टि करने के बजाय
           ज्ञान में समृद्ध कर देता है ; --
इसीलिये --
           आदर्श या गुरु में एकान्तिकता
           जीवन के हित में इतना प्रयोजनीय है ;
अतएव
धर्मसाधना का प्रथम और प्रधान प्रयोजन ही है
           इष्ट, आदर्श या गुरु---
और,
           धर्मशीला बनने के लिये
                 चाहिये उनके प्रति भक्ति
                        और उनका अनुसरण और आचरण,
ऐसे चरित्र से,
           जिससे यह भक्ति या आसक्ति
                 स्वामी और पारिवारिक सभी में
                       जिससे ऐसी प्रेरणा सृष्टि कर दे--
कि वे
          इसमें उदबुद्ध और अनुप्राणित हो उठें ; --
और,
         ऐसा बनने से ही
             तुम्हारा सहधर्मिणीत्व
                  सार्थक होगा, ---
देखोगी
          उज्ज्वल होओगी
                         और उज्ज्वल करोगी.        |87|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

Sevaasambhog Mein Swaami

सेवासम्भोग में स्वामी 

तुम्हारी
          सेवा, भक्ति और प्रेरणा
                 तुम्हारे स्वामी-देवता को
         उन्नति में जितना ही
                 आरूढ़ कर देगी, --
तुम्हारे निकट वे
          उतना ही महान दिख पड़ेंगे--
-- और, यह
           नित्य नूतन रूप में---
                 नवीन भाव से ; --
इसीलिये
          तुम भी इस प्रकार--
               उनको नवीन बनाकर
नित्य नूतन उपभोग के द्वारा--
          अज्ञात भाव से--
          किस प्रकार दुनिया के निकट---
महीयसी, गरीयसी, मंगलरूपिणी बनकर
          आराध्या बन जाओगी --
                   समझ भी नहीं सकोगी.     |86|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

Sevaa Mein Pooja Aur Sneh

सेवा में पूजा और स्नेह 

तुम श्रेष्ठ को धारण और पूजा करो,
        छोटे को स्नेह और उन्नत करो,
सभी की
        यथोपयुक्त भाव से
                                  सेवा करो.           |85|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

Dharmacharan

धर्माचरण 

'धर्म' का अर्थ वही होता है
         जो धारण किये रहता है--
अर्थात
         जो करने से या जिस आचरण से
या जिस भाव के पोषण से
         मनुष्य के जीवन और वृद्धि
                अक्षत और अबाध होते हैं ;
         यदि तुम धर्मशीला होओ,
                देखोगी,
         तुम्हारे पुरुष (स्वामी) और परिवार में
                आप से आप
         वह फैला जा रहा है,
    कारण, स्त्री जो चाहती है,
पुरुष की इच्छा उसे ही करने की चेष्टा करती है--
         और, पुरुष के समय
स्त्री भी
         अपने वैशिष्ट्यानुसार वैसा ही करती है;
इसलिये, देख सकोगी--
        अज्ञात भाव से,
             उनके चरित्र में भी
                   तुम्हारी वह धर्मप्राणता
उदबुद्ध हो रही है---
और,
       इसके फलस्वरुप 
              तुम्हारा संसार
       श्री और उन्नति की दिशा में
              अग्रसर होकर
रोग-शोक, दुर्दशा-दरिद्रता से--
                क्रमशः हटता जा रहा है.     |84|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

बुधवार, नवंबर 16, 2011

Yuvati Ke Yogya Var

युवती के योग्य वर 

युवती कन्या का --
          यौवन का शेष
और प्रौढत्व का आरम्भ
         ऐसे वयस का वर होना ही श्रेय है, --
इसमें
         स्त्री की जीवनीशक्ति 
               पुरुष में संक्रामित होकर
         और पुरुष की जीवनीशक्ति
               स्त्री में संक्रामित होकर
                     एक समता उत्पादन करके
               क्षय को दुर्बल बना सकती है ;
इसीलिये,
          शास्त्र में है---
ऐसा विवाह
          धर्म्म है
                  अर्थात , जीवन और वृद्धिप्रद है.   |83|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

Vivaah Mein Vayas Ka Paarthaky

विवाह में वयस का पार्थक्य 

जिसे पति वरण करने की
             सम्भावना है--
उसे
             सिर्फ बन्धु की तरह  मत सोचो,
वरन सोचो--
             देवता की तरह,
                     आचार्य की तरह;
भाव और वयस का नैकट्य
             मनुष्य के
बोध और ग्रहणक्षमता का
             दूरत्व बनाये रखता है ;--
इसीलिये---
            स्वामी-स्त्री के वयस का पार्थक्य
पुरुष को जिस वयस में
            प्रथम सन्तान हो सकती है
उतना ही
                                    होना उचित है.         |82|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

सोमवार, नवंबर 14, 2011

Prajanan-Niyantran Mein Naaree Ke Bhaav Aur Dayitw

प्रजनन-नियंत्रण में- नारी के भाव और दायित्व 

विवाह के अनेक प्रयोजनों में
     एक प्रधान प्रयोजन है
         सुप्रजनन,
और
       ऐसे सुप्रजनन को नियंत्रित करता है
             नारी का भाव--
                 जो पुरुष को उद्दीप्त कर आनत करता है ;
तभी
        नारी जिसे
              वहन कर, धारण कर
कृतार्थ और सार्थक होगी,---
        विवेचना करके
             ऐसे सर्वविषय में श्रेष्ठ,
       पुरुष के साथ ही परिणीत होना उचित है;
अतएव
       विवाह में पुरुष को वरण करने का भाव
          नारी पर रहना ही समीचीन
              प्रतीत होता है ;---
क्या ऐसी बात नहीं ?
         तुम्हीं विवेचना करके और गुरुजन के साथ
              बातें कर
                  अपना वर वरण करो.    |81|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

Vivaah Mein - Anulom Aur Pratilom

विवाह में -- अनुलोम और प्रतिलोम


अनुलोम जिस प्रकार 
  उन्नत को प्रसव करता है,
     प्रतिलोम उसी प्रकार ही
        अवनति की वृद्धि करता है;--
इसीलिये
   प्रतिलोम विवाह
       ऐसा पाप है--
   जो
अपने वंश को
    ध्वंस में अवसान तो करता ही है, --
       इसके अलावा
पारिपार्श्विक या  समाज की भी
     गर्दन पकड़ कर
         विध्वस्ति की दिशा में
             परिचालित करता है !--
असती स्त्री की निष्कृति
    वरन संभव है,
        किन्तु प्रतिलोमज हीनत्व का
अपलाप
               अत्यन्त ही दुष्कर है.   |80|  

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

शनिवार, नवंबर 12, 2011

Varan-Sewaa Aur Stuti Ke Aagrah Se Vivaah

वरण-सेवा और स्तुति के आग्रह से विवाह 

यदि किसी पुरुष की
आदर्शानुप्राणता
और सर्व प्रकार का श्रेष्ठत्व
तुम्हें श्रद्धा-भक्ति में
अवनत और नतजानु करके--
उनकी सेवा में
कृतार्थ करना चाहे--
हृदय से मुख में
जिनका स्तुतिगान
उपच उठे,
उन्हें तुम वरण कर सकती हो--
आत्मदान कर सकती हो,
उनका स्त्रीत्व लाभ करके
स्तुति और सेवा से
धन्य होओगी --
संदेह नहीं.    |79|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारीनीति 

Saarthak Vadhootw

सार्थक वधूत्व 

यदि तुम
किसी उपयुक्त --
जो हर तरह तुमसे श्रेष्ठ हैं
पुरुष को
इस प्रकार वहन कर सकोगी
विवेचना करती हो--
जिससे वे
जीवन, यश और वृद्धि से
किसी प्रकार अवनत न हों,--
तो
उनकी वधु बनो--
सती हो सकोगी--
गरिमामयी होगी.  |78|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र, नारी नीति 

शुक्रवार, नवंबर 11, 2011

Varenya-Varan

वरेण्य-वरण


पुरुष-जो सर्वप्रकार से ही
तुमसे श्रेष्ठ हैं--
और तुममें
जो तुम्हारे पूर्वज अधिष्ठित हैं
उनके वरेण्य हैं,--
जिनके साथ
आदर्श की आहुति बनने के प्रलोभन ने
तुम्हें--
सहन और वहन करने की उन्मादना में
उद्दाम कर दिया है--
तुम
उनकी ही वधु बनो--
सार्थक होओगी .  |77|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र, नारीनीति 

गुरुवार, नवंबर 10, 2011

Vivaah Mein Vahankshamataa

विवाह में वहनक्षमता 

प्रकृष्ट रूप में वहन करने को ही 
विवाह कहा जाता है ;
जो वहन करेगा 
(और यह वहन चाहे जितने रूप में हो सके)
यदि वह-- 
जिसे वहन करना है 
उससे सर्वप्रकार -- सर्वविषय में 
समर्थ न हो-- 
तो कैसे हो सकता है ?
जिन्हें तुम-- 
अपने को सर्वप्रकार 
वहन करने के लिये
प्रार्थना कर रही हो, 
वे तुम्हारी उस प्रार्थना की 
पूर्ति करने के 
उपयुक्त हैं या नहीं ; 
विवेचना करके 
अपने को दान करो,-- 
पतन, वेदना और आघात से उत्तीर्ण होगी   |76|  

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति