--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
शुक्रवार, नवंबर 07, 2008
ईर्ष्या और दोषदृष्टि
ईर्ष्या, असहानुभूति और दोषदृष्टि का
एक प्रधान कारण ही होता है--
एक को जो अच्छा लगता है,
वह दूसरे को अच्छा लगने के बजाय
अहं को आहत, उद्विग्न, अवसन्न कर देता है
और यह उभयतः ;-
उसके ही फलस्वरूप
अपवाद और ईर्ष्या से
अप्रतिष्ठा आकर
दोनों का ही अपलाप लाना चाहती है;
तुम किंतु
दूसरे को जो अच्छा लगे उसमें आनंदित होओ ;--
सहानुभूति दो--
यदि तुम्हारी क्षति भी करे,
उसकी अवस्था, प्रयोजन एवं बोध के प्रति
नजर रखकर--
वहाँ तुम्हारी यदि वैसी अवस्था होती
तो तुम भी वैसा करती,
बोध कर
उसकी निन्दा या अख्याति न करो--
और, यह तुम
चरित्रगत करने की चेष्ठा करो;--
देखोगी--
प्रतिष्ठा पाओगी,
स्वस्ति तुम्हारी अभ्यर्थना करेगी। 28
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