शुक्रवार, नवंबर 07, 2008

ईर्ष्या और दोषदृष्टि

ईर्ष्या, असहानुभूति और दोषदृष्टि का एक प्रधान कारण ही होता है-- एक को जो अच्छा लगता है, वह दूसरे को अच्छा लगने के बजाय अहं को आहत, उद्विग्न, अवसन्न कर देता है और यह उभयतः ;- उसके ही फलस्वरूप अपवाद और ईर्ष्या से अप्रतिष्ठा आकर दोनों का ही अपलाप लाना चाहती है; तुम किंतु दूसरे को जो अच्छा लगे उसमें आनंदित होओ ;-- सहानुभूति दो-- यदि तुम्हारी क्षति भी करे, उसकी अवस्था, प्रयोजन एवं बोध के प्रति नजर रखकर-- वहाँ तुम्हारी यदि वैसी अवस्था होती तो तुम भी वैसा करती, बोध कर उसकी निन्दा या अख्याति न करो-- और, यह तुम चरित्रगत करने की चेष्ठा करो;-- देखोगी-- प्रतिष्ठा पाओगी, स्वस्ति तुम्हारी अभ्यर्थना करेगी। 28
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

कोई टिप्पणी नहीं: