मंगलवार, सितंबर 30, 2008

भाव और कर्म

भाव भाषा को मुखर कर देता है-- पुनः, भाव ही कर्म को नियंत्रित करता है, और, भावना से ही भाव उदित होता है ; अतएव अपनी भावना को जितने सुंदर, सुश्रृंखल, सहज, अविरोध एवं उन्नत ढंग की बनाओगी-- तुम्हारी भाषा, व्यवहार, और कर्मकुशलता भी उतनी सुंदर अविरोध और उन्नत ढंग की होगी। 10
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति

शुक्रवार, सितंबर 26, 2008

दान और प्राप्ति

तुम्हारे भाव, भाषा एवं कर्मकुशलता जिस प्रकार होगी तुम्हारे संसर्ग में जो ही आयेंगे उसी प्रकार वे उद्दीप्त होंगे, और, तुम पाओगी भी वही-- उसी प्रकार ; तुम नारी हो, प्रकृति ने ही तुम्हें वैसी गुणमयी बनाकर प्रसव किया है-- समझ कर चलो ! 9
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति

नारीत्व का अपलाप

स्मरण रखो-- तुम्हारा संसर्ग यदि सभी विषयों में यथायथभाव से उन्नति या वृद्धि की दिशा में परिचालित नहीं करे-- तो तुम्हारा नारीत्व क्या मसीलिप्त नहीं हुआ ? 8
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति

धर्मकार्य

धर्मकार्य का अर्थ है वही करना-- जिससे तुम्हारा और तुम्हारे पारिपर्श्विक का जीवन, यश और वृद्धि क्रमवर्द्धन से वर्द्धित हो ;-- सोच, समझ, देख, सुनकर-- वही बोलो,-- और आचरण में उसका ही अनुष्ठान करो,-- देखोगी-- भय और अशुभ से कितना त्राण पाती हो। 7
--: श्री श्री ठाकुर, नारीनीति

कुमारीत्व

कुमारी कन्याओं का-- पिता के प्रति अनुरक्ति रहना, उनकी सेवा और साहचर्य करना-- उनके साथ वार्तालाप करना-- उन्नति का प्रथम और पुष्ट सोपान है। 6
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

नारी का वैशिष्ट्य

नारियों के वैशिष्ट्य में है-- निष्ठा, धर्म, शुश्रूषा, सेवा, सहायता, संरक्षण, प्रेरणा और प्रजनन तुम अपने इन वैशिष्टियों में किसी एक का भी त्याग न करो ; इसे खोने पर तुमलोगों का और बचा ही क्या ? 5
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

सुख और भोग

सुख का अर्थ वही है जो being को ( सत्ता या जीवन को ) सुस्थ, सजीव और उन्नत कर पारिपार्श्विक को उस प्रकार बना दे, -- और प्रकृत भोग तभी वहाँ उसे अभिनंदित करता है। 4
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

बुधवार, सितंबर 24, 2008

क्षिप्रता और दक्षता

क्षिप्रता सहित दक्षता को साध लो, और नजर रखो भी-- मनुष्य के प्रयोजनानुसार हावभाव पर ; और हावभाव को देखकर ही जिससे प्रयोजन को अनुधावन कर सको-- अपने बोध को इसी प्रकार तीक्ष्ण बनाने की चेष्टा करो; इसी प्रकार ही-- क्षिप्रता और दक्षता सहित-- मनुष्य के प्रयोजन को अनुधावन कर सेवा-तत्पर बनो, -- देखोगी-- सेवा का जयगान तुम्हें परिप्लुत कर देगा। 3
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

सेवा और सेवा का अपलाप

"सेवा" का अर्थ वही है जो मनुष्य को सुस्थ, स्वस्थ, उन्नत और आनंदित कर दे ; जहाँ ऐसा न हो परन्तु शुश्रूषा है -- वह सेवा अपलाप को आवाहन करती है । 2
--:श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

माँ की तरह

तुम मनुष्य की माँ जैसा अपना बनने की चेष्टा करो-- कथनी, सेवा और भरोसा से, किंतु घुलमिलकर नहीं; देखोगी-- कितने तुम्हारे अपने बनते जा रहे हैं। 1
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

कन्या मेरी !

तुम्हारी सेवा, तुम्हारा चलन तुम्हारी चिंता, तुम्हारी कथनी, पुरूष-जनसाधारण में ऐसा एक भाव पैदा कर दे-- जिससे वे नतमस्तक, नतजानु हो, ससम्भ्रम, भक्ति गद गद कंठ से-- "माँ मेरी, जननी मेरी !" कहते हुए मुग्ध हों, बुद्ध हों, तृप्त हों, कृतार्थ हों, -- तभी तो तुम कन्या हो, --तभी तो तुम हो सती ! --: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति