बुधवार, दिसंबर 03, 2008

प्रतिष्ठा में प्रेम

प्रेम या प्यार-- अपने प्रेमास्पद की पारिपार्श्विक एवं जगत में सिर्फ प्रतिष्ठा करके ही चैन नहीं लेता,-- वह और भी चाहता है--अपने जगत को व्यष्टि और समष्टि रूप से अपने प्रेमास्पद को उपहार देकर कृतार्थ होना ;-- उन्हें वहन कर, वृद्धि में अनुप्राणित कर-- अधीनता में तृप्ति और मुक्ति को आलिंगन करना;-- और ऐसा करके ही प्रेम अपने प्रिय को बोध, ज्ञान, कर्म, जीवन एवं ऐश्वर्य से प्रतुल कर देता है-- इसलिये, प्रेम इतना निष्पाप है --इतना वरणीय है। 30
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

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