प्रेम या प्यार--
अपने प्रेमास्पद की
पारिपार्श्विक एवं जगत में
सिर्फ प्रतिष्ठा करके ही चैन नहीं लेता,--
वह और भी चाहता है--अपने जगत को
व्यष्टि और समष्टि रूप से
अपने प्रेमास्पद को
उपहार देकर कृतार्थ होना ;--
उन्हें वहन कर,
वृद्धि में अनुप्राणित कर--
अधीनता में
तृप्ति और मुक्ति को आलिंगन करना;--
और ऐसा करके ही
प्रेम अपने प्रिय को
बोध, ज्ञान, कर्म, जीवन एवं ऐश्वर्य से
प्रतुल कर देता है--
इसलिये,
प्रेम इतना निष्पाप है
--इतना वरणीय है। 30
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
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