काम चाहता है
अपने काम्य को
अपने जैसा बना लेना--
वह सुखी होता है
यदि काम्य
अपनी सारी दुनिया को लेकर
अपने को उसमें निमज्जित कर दे;
काम
किसी की ओर
दौड़ना नहीं जानता--
अपने शिकार को
आत्मसात् करने में ही उसे तृप्ति है,--
इसीलिये उसकी वृद्धि नहीं है--
जीवन और यश
संकोचशील होता है--
मरण-प्रासाद में उसकी स्थिति होती है--
इसलिये, वह
पाप, दुर्बलता, चंचल, अस्थायी
एवं मरण-प्रहेलिकामय है;
--समझकर देखो
क्या चाहती हो ? 31
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
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