शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

Dharmacharan

धर्माचरण 

'धर्म' का अर्थ वही होता है
         जो धारण किये रहता है--
अर्थात
         जो करने से या जिस आचरण से
या जिस भाव के पोषण से
         मनुष्य के जीवन और वृद्धि
                अक्षत और अबाध होते हैं ;
         यदि तुम धर्मशीला होओ,
                देखोगी,
         तुम्हारे पुरुष (स्वामी) और परिवार में
                आप से आप
         वह फैला जा रहा है,
    कारण, स्त्री जो चाहती है,
पुरुष की इच्छा उसे ही करने की चेष्टा करती है--
         और, पुरुष के समय
स्त्री भी
         अपने वैशिष्ट्यानुसार वैसा ही करती है;
इसलिये, देख सकोगी--
        अज्ञात भाव से,
             उनके चरित्र में भी
                   तुम्हारी वह धर्मप्राणता
उदबुद्ध हो रही है---
और,
       इसके फलस्वरुप 
              तुम्हारा संसार
       श्री और उन्नति की दिशा में
              अग्रसर होकर
रोग-शोक, दुर्दशा-दरिद्रता से--
                क्रमशः हटता जा रहा है.     |84|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, नारी नीति 

कोई टिप्पणी नहीं: