अंततः वाक् का
यदि इस प्रकार
व्यवहार करने का अभ्यास
चरित्रगत कर सको--
जिससे
मनुष्य के पास दुःख, अमंगल, असंतोष
आ न पहुंचे--
तो देखोगी--
कितनी तृप्ति है,
कितना संतोष है,
कितनी सहानुभूति लाभ की
अधिकारिणी हुई हो
उसकी इयत्ता नहीं;--
आग्रह सहित
इच्छा को आमंत्रित करो,--
अभ्यास में लग जाओ--
समर्थ नहीं होगी ?--
निश्चय समर्थ होओगी। 44
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति
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