सोमवार, अप्रैल 13, 2009

शुचि और परिच्छ्न्नता

सर्वदा शुचि और परिच्छन्न रहो, तुम्हारा शरीर और चतुर्दिक मानो सुसज्जित, परिष्कार-परिच्छन्न रहे,- मैला, दुर्गन्ध या बिखरे न रहें, -- सज्जित कर रखो-- देखते ही मानो सुंदर और स्वस्ति का अनुभव हो;-- इसका अर्थ यह नहीं कि पाक-साफ़ रहने की सनक तुम पर सवार हो; -- देखोगी स्वास्थ्य और तृप्ति तुम्हें अभिनंदित करेंगे ;- अशुचि और अपरिच्छन्नता -- पातित्यों में ये भी कम नहीं हैं। 47
--: श्री श्री ठाकुर, नारी नीति

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