तुम जब रोगग्रस्त रहती हो
जनसंसर्ग से जितना दूर सम्भव हो
उतना दूर रहो;
सम्भव हो तो अपने आपको उस प्रकार
उपयुक्त तरीके से
विच्छिन्न कर रखो--
जिससे दूसरों में तुम्हारा रोग,
किसी प्रकार बिल्कुल संक्रामित
न हो;--
सोने,
बैठने, वार्तालाप इत्यादि में भी
पैनी दृष्टि रखो-- उस संक्रमण की दिशा में ;
और तुम्हारी सेवा-शुश्रूषा में जो लगे हुए हैं,
सम्भव हो तो उन्हें भी समझा दो
और नजर रखो--
वे पाक-साफ हुए बिना
जनसंसर्ग में न जाएँ;
देखोगी-तुम्हारी रोगग्रस्त अवस्था
कटने पर
पुनः नाना प्रकार से आक्रांत होने के
भय और संभावना
कम ही रहेंगे। 58
-- : श्री श्री ठाकुर, नारीनीति
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